Saturday, June 19, 2010

बच गये बेचारे सूर, तुलसी



वरना ये महाशय उन्हें कचडे के ढेर में फिकवा कर दम लेते
-डॉ.रुक्म त्रिपाठी

एक पत्रकार और कहानीकार, जिन्हें आप सहज ही पहचान जायेंगे वे आयु में सत्तर पार कर चुके हैं किंतु अपने को नये लेखकों का ‘गॉडफादर’ मानते हैं और उन्हें मंच देने के लिए पुरानी पीढ़ी के रचनाकारों की अपेक्षा उन्हीं की रचनाएं छापते हैं।
उनका कहना है, ‘नितांत नये लेखकों की पुस्तकें किसी भी स्थापित लेखक से कम नहीं बिकतीं। नये लेखकों की पुस्तकों के दूसरे संस्करण भी छप रहे हैं। इसका कारण है कि नये लेखकों का सृजन फलक बड़ा है। मेरी समझ से नयी पीढ़ी , हवा के ताजे झोंके की तरह आयी और पुरानी पीढ़ी द्वारा फैलाये गये प्रदूषण को बुहार कर कूड़े के ढेर में फेंक दिया। इनके कथ्य, इनकी भाषा. इनकी संवेदना और तेवर बिल्कुल नये और ताजे हैं, जो हर उम्र के पाठकों को मोह रहे हैं।’ (जैसे आप जैसे सत्तर वर्षीय युवा संपादक को मोह रहे हैं)।
बड़बोले जी! हमें आश्चर्य है कि शिक्षा विभाग आज भी छोटी कक्षाओं से लेकर स्नातकोत्तर तक पुरानी पीढ़ी के रचनाकारों के प्रदूषण फैलाने वाले साहित्य को पाठ्यक्रम के रूप में क्यों रखे है? उसे कूड़ेदान में फेंक कर नयी पीढ़ी के साहित्य को क्यों नहीं रखता? कथाकार प्रेमचंद, ‘कामायनीज’ के रचनाकार जयशंकर प्रसाद, निराला, पंत, अमृतलाल नागर, भैरवप्रसाद गुप्त, आचार्य शिवपूजन सहाय, यशपाल, कृष्णचंदर आदि की पुस्तकों के अब तक दर्जनों संस्करण निकल चुके हैं और आगे भी निकलेंगे। पाठकों में प्रदूषण फैलानेवाले इनके साहित्य को कूड़े में क्यों नहीं फेंक दिया जाता?
बड़बोले जी को इस ज्ञान की प्राप्ति तब हुई , जब उनके राज्य से उन्हें वहां का निवासी साहित्कार होने के नाते ढाई लाख का पुरस्कार मिला है। (किसी अन्य राज्य ने उनके साहित्य सृजन का ऐसा मूल्यांकन क्यों नहीं किया?)।
उनका कहना है कि अब मैं ढाई लाख से कम का पुरस्कार ग्रहण नहीं करूंगा। लाख रुपये के पुरस्कार छुटभैयों के लिए छोड़ रहा हूं।
शायद उन्हें पता नहीं है (बड़े नगरवासी होने के कारण) कि नयी शैली की कहानियों और छंदमुक्त कविताओं के पाठक मुश्किल से बीस प्रतिशत हैं, जबकि प्राचीन साहित्य ग्रामीण पाठकों में आज भी लोकप्रिय है , जो बार-बार पढ़ा जाता है। विश्वास न हो तो गांवों के पाठकों की रुचि का सर्वे करवा कर देख लीजिए। मेरा जन्म गांव में हुआ है इसलिए मैं आज भी वहां देवकीनंदन खत्री और प्रेमचंद के उपन्यास तथा कहानियों को बड़े चाव से पढ़ते देखता हूं।
क्षमा करें बड़बोले जी! आपने सत्तर से अधिक उम्र का होते हुए भी पुरानी पीढ़ी के सम्माननीय, आपसे अधिक प्रतिष्ठित विद्वान लेखकों की रचनाओं को प्रदूषण फैलानेवाला कहा इसलिए बरदाश्त नहीं हुआ। आप भी तो मां के पेट से साहित्य सीख कर नहीं आये, इस प्रदूषण (आपकी भाषा में, हम तो इसे पावन चंदन की सुगंध मानते हैं) को पढ़ कर ही तो आपने साहित्य सृजन की शक्ति और सामर्थ्य पाया। यह तो आपका आधार है इसे ही काट देंगे तो औंधे मुंह जमीन पर आ गिरेंगे। एक बात और कहा गया है कि विद्या ददाति विनयम् विनयात यात पात्रताम् यानी विद्या विनय देती है और विनयी भाव से ही व्यक्ति में पात्रता या योग्यता आती है। इतना दंभ आपमें कहां से भर गया कि आप उस साहित्य के शलाका पुरुषों को ही कचड़ा कहने लगे जिसे सीख कर आप आज इतनी ऊंचाई पर पहुंचे हैं। बड़बोले जी! ऊंचाई में चढ़ने के बाद उन सीढ़िय़ों को नहीं भूला करते जिनके सहारे आप वहां पहुंचे हैं खुदा न खास्ता कल ऊंचाई आपको नकार दें तो आप कहां जायेंगे।
काश आपको साहित्य का नोबल पुरस्कार मिल गया होता तो पता नहीं सूर, तुलसी, रहीम, कबीर, बिहारी, केशव,पद्माकर, केशव, विद्यापति आदि की ये कैसी आरती उतारते।
हम नये रचनाकारों के साहित्य सृजन विरोधी नहीं हैं। उनमें नयी दृष्टि. नयी शैली और नया सोच है। वे बेहतर लिख रहे हैं। साहित्य में नया रंग नया प्रकाश ला रहे हैं। युग परिवर्तनशील है और साहित्य में भी यह परिवर्तन सुखद संकेत और इसकी श्री वृद्धि का परिचायक है लेकिन शायद वे भी अपने शलाका पुरुषों (जिनके साहित्य ने उन्हें राह दिखायी) को कचड़ा या प्रदूषण फैलानेवाला नहीं कहेंगे। बड़बोले जी! माफ कीजिएगा सूरज पर थूकने से अपने ही सिर पर आ गिरता है। संभलिए और अपने से बड़ो को सम्मान देना सीखिए। आप साधारण इनसान हैं खुद को साहित्य का भगवान मानने का भ्रम मत पालिए। लिखना कम समझना ज्यादा। आशा है अन्यथा नहीं लेंगे।

Wednesday, May 12, 2010

तपिश-त्रासदी के दोहे (1)

सुमुखि, सुलोचनि कामनी,
भूल साज शृंगार।
रह-रह करवट बदलती,
व्याकुल बारंबार।।


नहीं सुनाई दे रही,
अब कोयल की कूक।
लगता वह मूर्च्छित पड़ी,
लग जाने से लूक।।



धूल बवंडर बन उठे,
सूखे कूप-तड़ाग।
जलविहीन सरिता दिखे,
बिन सिंदूरी मांग।।


पथ-डगरें सुनसान सब,
सन्नाटा है व्याप।
शनः-शनः है बढ़ रहा,
अति प्रचंड रवि-ताप।।

तपिश-त्रासदी के दोहे (2)

मृग मरीचिका जल सदृश,
लहर लहर लहराय।
हिरण भागता ही फिरे,
एक बूंद नहिं पाया।।


पशु पक्षी व्याकुल फिरें,
नहीं जलाशय पास।
चहुं दिशि जब सूखा दिखे,
कैसे बुझेगी प्यास ।।


आकुल, व्याकुल सिंह, मृग,
भूल शत्रुवत भाव।
शीतलता की चाह हित,
खोज रहे मिल ठांव।।


सूखी जीभ निकाल कर,
लक-लक करता श्वान।
नेत्र बंद कर हांफता,
संकट में हैं प्राण ।।

Thursday, May 6, 2010

जगेसर काका

कहानी

डॉ. रुक्म त्रिपाठी
जगेसर काका को शहर में देख कर मैं चौंक उठा। सोचा, फौज से छुट्टी मिलने पर गांव जा रहे होंगे। उनके पांव छूते हुए कहा-‘पांव लागूं काका।’
काका ने मुड़ कर देखा, ‘अरे नंदन बेटवा! तुम यहां?’
‘हां, काका। गांव में मिडिल तक स्कूल है। आगे की पढ़ाई के लिए मामा ने यहां बुला लिया। कल से गरमी की एक माह की छुट्टी हो रही है। छोटे भाई चंदन के लिए यह कमीज ली है। कैसी है?’
कपड़े की दूकान में खरीददारी कर रहे जगेसर ने कहा-‘बहुत बढ़िया है। हमने रग्घू बेटवा के लिए कुछ कपड़े खरीद लिये हैं।उसकी महतारी के लिए यह साड़ी ले रहे हैं। उसे लाल रंग बहुत पसंद है। देखो कैसी है?’
सामने फैली लाल रंग की साड़ी पर हाथ फेरते हुए काका ने पूछा।
मैंने कहा,-‘बहुत अच्छी है। मगर रग्घू के लिए मिठाई-इठाई ली है या नहीं?’
‘बहुत कुछ लिया है बेटवा! तुम कब जा रहे हो गांव?’
‘कल काका।’
तभी मैंने देखा एक आदमी लाठी से जिस-तिस आदमी की ऊंचाई नाप रहा है। काका से पूछा, -‘ वो क्या कर रहा है काका?’
‘फौज में भरती करने के लिए जवान तलाश रहा है। तभी तो लोग उसके डर से भाग रहे हैं। और सिपाही उनके पीछे दौड़ रहे हैं।’
‘पकड़ने के लिए?’
‘हां बेटवा। मुझे भी भरती करने के लिए ऐसे ही पकड़ा गया था, यहीं।’
लाल साड़ी और उसी रंग से मेल खाता जंफर ( ब्लाउज) गठरा में बांधते हुए काका ने कहा, ‘जो खरीदना था, सब ले लिया बेटवा। अब चलें।’
‘ठीक है। कल गांव में भेंट होगी।’
काका उठे ही थे कि चार हट्टे-कट्टे आदमियों ने उन्हें धर दबोचा।
मैं चीखा, ‘ये आप लोग क्या कर रहे हैं?’
उनमें से एक ने कहा, ‘यह फौज से भागा हुआ आसामी है। हम बहुत दिनों से इसका पीछा कर रहे हैं।’
मैंने घबरा कर जगेसर काका से पूछा, ‘ क्या यह सच है?’
‘ हां बेटवा, छुट्टी नहीं मिल रही थी। रग्घू बेटवा को देखने की बड़ी इच्छा हो रही थी।’

मैंने उनमें से एक से पूछा, ‘ क्या आप लोग जगेसर काका को पहचानते थे?’
‘कौन जगेसर काका?’
‘यही जिन्हें आप पकड़े हैं।’
‘नहीं।’
‘ तब आप कैसे जान गये कि ये फौजी हैं?’
‘चाल से। हमें सूचना मिली थी कि एक फौजी भाग गया है। फौजी आदमी को हम चाल से पहचान लेते हैं।’
मैंने पूछा, ‘अब क्या होगा?’
‘कोर्ट मार्शल।’
‘जेल जायेंगे?’
उनमें से एक ने कहा, ‘जेल नहीं ऊपर।’
सुनते ही जगेसर काका घबरा उठे।
मैंने पूछा, ‘ऊपर माने?’
‘शूट! अंग्रेज अफसर इसे शूट कर देंगे।’
जगेसर काका ने उस आदमी के पांव पकड़ कर गिड़गिड़ाते हुए प्रार्थना की, ‘मैं बहुत गरीब हूं भइया। मेरे एक छोटा बच्चा और घरवाली के सिवा कोई नहीं है। मेहनत मजदूरी कर के पेट पालते थे। जबरन फौज में भरती कर लिया गया। मुझेमार दिया गया, तो वे दोनों भूखे मर जायेंगे।’
अब मेरे आंसू नहीं रुक सके। मैं समझ गया जगेसर काका को मैं आज अंतिम बार जीता-बोलता देख रहा हूं।
यह काल्पनिक कहानी नहीं हकीकत है। तीस दशक के अंतिम चरण में गोरी सरकार जवानों को ऐसे ही जबरन फौज में भरती कर रही थी। हिटलर के आक्रमण के भय से।
मारे जाने की दिल दहलाने वाली बात सुन कर हिचकी भर कर रोते हुए जगेसर काका ने गठरी खोल कर लाल साड़ी दुकनदार को लौटाते हुए कहा,‘ इसके बदले बेवा के पहनने वाली सफेद साड़ी दीजिए। जंफर भी बदल दीजिए।’
दुकानदार सब सुन चुका था। वह समझ गया था कि कल इस बंदे के मारे जाने के बाद इसकी बीवी बेवा हो जायेगी।इसलिए दोनों लाल कपड़े लेकर सफेद दे दिये।
मैंने देखा, दुकानदार की आंखें भी छलछला आयी थीं।
जगेसर काका ने सफेद साड़ी और जंफर बांध कर गठरी मुझे देते हुए कहा, ‘बेटवा! यह गठरी रग्घू की महतारी को देकर कहना,‘तुम्हारा सुहाग अब कभी नहीं लौटेगा इसलिए मांग का सिंदूर पोंछ ले।’
फिर उन्होंने उन चारों जासूसों से अंतिम बार गिड़गिड़ाते हुए प्रार्थना की,‘आप भी बाल बच्चे वाले होंगे। जरा सोचिए, मेरे माने जाने के बाद ...’
‘अबे, चुप।’
एक जासूस ने काका को बीच में ही टोक कर डांटते हुए कहा,‘उपदेश मत झाड़। चुपचाप चल। वरना मारते पीटते ले जायेंगे।’
ये सुनते ही मैं जोर-जोर से रोने लगा, तो एक जासूस ने मुझे डांटते हुए कहा,‘अबे तू क्यों रोता है बंदर की औलाद। तू भी जायेगा क्या इसके साथ मरने के लिए?’
3
काका ने कहा,‘ इसे मत डांटिए। इससे यह सब देखा नहीं जाता। बच्चा है।’
‘बच्चा है तो बच्चे की तरह रहे।’ कह कर एक जासूस ने मेरी ओर गुस्से से देखा तो मैं कांप उठा।
काका के आंसू रुक नहीं रहे थे। मैं गठरी लेकर जाने लगा तो उन्होंने कहा, ‘बेटवा! रग्घू की महतारी से कहना, बच्चे को नाना-नानी के यहां छोड़ कर दूसरी शादी कर ले वरना अकेली पाकप शोहदे पीछे लग जायेंगे। तब चैन से जी नहीं पायेगी। यह सब उससे कह देगा या नहीं?’
मैंने हिचकी भर कर रोते हुए हामी भर ली। फिर उनके पांव छूकर जब उन चारों जासूसों को देखा, तो वे मुझे यमदूत से लगे।
दूसरे दिन जब मैं बस से गांव के लिए रवाना हुआ तो रास्ते में सोचने लगा, कल कोई अंग्रेज काका को गोली मार कर उनकी छलनी हुई लाश को देख कर ठहाका मान कर कहेगा, ‘ ब्लडी ब्लैकमैन! जो भागेगा, वो ऐसे ही शूट किया जायेगा।’
बस से उतर कर मैं पहले जगेसर काका के घर गया। देखा काकी कोई लोकगीत गाती हुई सपा से चावल फटक रही थी। ठह साल का रग्घू पास बैठा सूखी रोटी चबा रहा था। मुझे देखते ही काकी नं फटकना बंद कर रहा, ‘ आओ बेटवा। शहर से आ रहे हो?’
‘हां काकी! काका मिले थे, उन्होंने यह सामान भेजा है।’
‘मेरे लिए क्या भेजा है बापू ने?’ रग्घू ने पूछा।
काकी ने जल्दी-जल्दी गठरी खोली, तो दूसरे सामान के साथ सफेद साड़ी और जंफर देखते ही बोली,‘बस में गठरी बदल गयी है बेटवा!’
मैंने कहा,‘ नहीं काकी। यह गठरी काका ने ही दी है।’
उन्होंने कहा, ‘ जब मैं लाल साड़ी पहनती हूं तो यह सफेद साड़ी क्यों? लगता है किसी विधवा की गठरी से बदल गयी है।’
मैंने रुआंसा होकर काकी को सब कुछ सच-सच बता कर कहा, ‘गठरी बदली नहीं काकी।’
मेरी बात सुन कर काकी सन्न। जैसे उनकी जबान को लकवा मार गया हो। चुप।
उनके आंसू न निकलते देख मैं घबरा गया और उनके पांव छू चुपचाप बाहर निकल गया।