Wednesday, May 12, 2010

तपिश-त्रासदी के दोहे (1)

सुमुखि, सुलोचनि कामनी,
भूल साज शृंगार।
रह-रह करवट बदलती,
व्याकुल बारंबार।।


नहीं सुनाई दे रही,
अब कोयल की कूक।
लगता वह मूर्च्छित पड़ी,
लग जाने से लूक।।



धूल बवंडर बन उठे,
सूखे कूप-तड़ाग।
जलविहीन सरिता दिखे,
बिन सिंदूरी मांग।।


पथ-डगरें सुनसान सब,
सन्नाटा है व्याप।
शनः-शनः है बढ़ रहा,
अति प्रचंड रवि-ताप।।

1 comment: