सुमुखि, सुलोचनि कामनी,
भूल साज शृंगार।
रह-रह करवट बदलती,
व्याकुल बारंबार।।
नहीं सुनाई दे रही,
अब कोयल की कूक।
लगता वह मूर्च्छित पड़ी,
लग जाने से लूक।।
धूल बवंडर बन उठे,
सूखे कूप-तड़ाग।
जलविहीन सरिता दिखे,
बिन सिंदूरी मांग।।
पथ-डगरें सुनसान सब,
सन्नाटा है व्याप।
शनः-शनः है बढ़ रहा,
अति प्रचंड रवि-ताप।।
बहुत बढ़िया!
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