Thursday, June 28, 2012

‘बाजार में खड़ी है पत्रकारिता, जो कीमत चुकाता है, उसकी बोली बोलने लगती है’

 वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार डॉ. रुक्म त्रिपाठी के उद्गार
-राजेश त्रिपाठी
कोलकाता : पिछले दिनों यहां भारतीय भाषा परिषद के सभागार में हिंदी पत्रकारिता के 186 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में स्थानीय हिंदी दैनिक ‘छपते छपते’ के तत्वावधान में ‘हिंदी पत्रकारिता की 186 वर्ष की यात्राः एक सिंहावलोकन’ विषय पर परिचर्चा और हिंदी के पांच वयोवृद्ध पत्रकारों के सम्मान का समारोह आयोजित किया गया। इसमें डॉ. रुक्म त्रिपाठी, संतन कुमार पांडेय, सुदामा प्रसाद सिंह, मोहम्मद इसराइल अंसारी व रामगोपाल खेतान को पत्रकारिता में उनकी सेवाओं के लिए सम्मानित किया गया।

कार्यक्रम का उद्घाटन वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.कृष्णबिहारी मिश्र व कलकत्ता उच्च न्यायालय के जस्टिस कल्याण ज्योति सेनगुप्ता ने किया। डॉ.मिश्र ने अपने संबोधन में युवा पत्रकारों से पत्रकारिता के उत्कृष्ण प्रतिमानों को पुनः स्थापित करने की अपील की। उन्होंने हिंदी समाचारपत्रों के गौरवमय अतीत की याद दिलाते हुए कहा कि आज पत्रों के कलेवर तो बेहतर हुए हैं लेकिन उनमें संस्कारों और राष्ट्रीय मूल्यों के प्रति संघर्ष का भाव नहीं रहा। उन्होंने कहा कि पाठकों का दबाव ही समाचारपत्रों को फिर से जनोन्मुखी बनायेगा।

समारोह के मुख्य अतिथि कलकत्ता उच्च न्यायालय के जस्टिस कल्याण ज्योति सेनगुप्ता ने भी समाचापत्रों के स्तर और मूल्यों में गिरावट के प्रति चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि समाचारपत्रों के संपादकों और पत्रकारों को खुद इस बारे में समीक्षा करनी चाहिए कि यह स्थिति क्यों आयी।
छपते छपते हिंदी दैनिक परिवार की ओर से पांचों सम्मानित पत्रकारों का सम्मान स्मारक चिह्न प्रदान करने के अलावा शाल ओढ़ा कर और उत्तरीय प्रदान कर सम्मानित किया गया। सम्मानित पत्रकारों ने पत्रकारिता के बारे में अपने विचार व्यक्ति किये। पत्रकारिता के गिरते स्तर के बारे में डॉ. रुक्म त्रिपाठी ने कहा कि आज पत्रकारिता बाजार में खड़ी है, जो भी उसकी कीमत चुकाता है, यह उसी के बोल बोलने लगती है। 
इस अवसर पर अपने विचार व्यक्त करते हुए डॉ. रुक्म त्रिपाठी ने कहा-‘ मैंने आधी शताब्दी से भी अधिक समय पत्रकारिता और लेखन में गुजारा है। मैं पत्रकारिता के अतीत से वर्तमान तक से सक्रिय रूप से जुड़ा रहा हूं और इसके उत्थान-पतन का साक्षी रहा हूं। आज जब हम इसकी उपलब्धि का आकलन करते हैं तो हमारे सामने इसके उत्कर्ष और पतन के पक्ष उजागर होते हैं। पत्रकारिता का जिसे स्वर्ण युग कह सकते हैं वह इसके प्रारंभ के वर्ष थे जब इसका उद्देश्य, इसके सिद्धांत और निष्ठा ही इसका सबसे बड़ा धन होते थे। यह सत्यम् शिवम् सुंदरम् के उद्देश्य पर आधारित पत्रकारिता थी। यानी जो सत्य है कल्याणकारी है उसकी प्रतिष्ठा और जो स्वेच्छारिता, अन्याय अनाचार है उसकी निर्भीक होकर समालोचना ही इसका धर्म था। तब पत्रकार एक ध्येय एक निष्ठा लेकर चलते थे जो बिकाऊ नहीं थी। तब पैसे के मोह में सामाजिक दायित्वों को तिलांजलि दे कोई ठकुरसुहाती नहीं लिखता था। वह स्वाधीनता आंदोलन का युग था। हिंदी पत्रकारिता ओतप्रोत भाव से इस आंदोलन को प्रोत्साहित करने इसे अपना सक्षम समर्थन देने में जुटी थी। पत्रकारिता के कई मनीषियों को इसके चलते ब्रिटिश राज का कोपभाजन भी बनना पड़ा लेकिन वे अपने उद्देश्य से नहीं डिगे। हिंदी पत्रकारिता का अतीत जितना निर्मल और उज्जवल था, इसका वर्तमान उतना ही कलुषित, दिशाहीन और सामाजिक सरोकार से कटा हुआ है।आज जब हम इसके अतीत और वर्तमान का आकलन करने बैठते हैं तो सबसे पहले यही प्रश्न आता है कि क्या वर्षों पूर्व जब पत्रकारिता का श्रीगणेश हुआ था,तब से आज तक क्या यह अपने उद्देश्यों और सिद्धांतों पर अडिग रह पायी है। हमें दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि पत्रकारिता अपने मूल्य उद्देश्यों और न सिद्धांतों ने न सिर्फ भटकी है अपितु दिशाहीन भी हो गयी है। आज इसमें मूल्यों का क्षरण, सिद्धांतों और उद्देश्यों का निर्मम हनन हो रहा है। यह अपने सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्वों से विमुख हो स्वेच्छारी और स्वार्थी हो गयी है।

भी पकारिता मिशन थी आज मोनोपोली है। जिसकी जैसी इच्छा अपने हित में इसका इस्तेमाल कर रहा है। ऐसे में इसका सत्यम् शिवम् सुंदरम् का सिद्धांत छीजता जा रहा है। कभी देश के स्वाधीनता आंदोलन की प्रेरक और प्राण शक्ति रही पत्रकारिता उद्देश्यहीन हो बाजार में आ खड़ी ई है। जो चाहता है इसकी मुंहमांगी कीमत चुकाता है और यह उसके ही बोल बोलने लगती है। अपने सामाजिक सरोकारों को तिलांजलि दे यह ऐसे हाथों में खेलने लगी है,जो इसे स्वेच्छाचारी और स्वार्थी बना रहे हैं। यह पतन की उस राह पर चल पड़ी है, जहां से अगर इसे अभी नहीं उबारा गया तो बहुत देर हो जायेगी।
 वैसे इस अराजक दौर और निराशा के घटाटोप में भी ऐसे निष्ठावान पत्रकार आज भी हैं जिनकी कलम बिकाऊ नहीं है। यही भविष्य के लिए उम्मीद की किरण हैं। आज पत्रकारिता ऊहापोह और विवशता के दोराहे पर आ खड़ी हुई है। दोराहा जहां उसके सामने व्यावसायिकता और राजनीतिक व अन्य दबावों का संकट है। दिनों दिन प्रकाशन संबंधी वस्तुओं की कीमतों से उसके सामने अस्तित्व का भी संकट है जिसके चलते उसे न चाहते हुए भी कुछ ऐसे समझौते करने पड़ते हैं जहां मूल्यों और सिद्धांतों को बलि देने को विवश होना पड़ता है। गलाकाट प्रतियोगिता और बदलते सामाजिक, राजनीतिक मूल्यों से उपजे दबाव के चलते पत्रकारिता अपने मूल्य उद्देश्यों से भटकती जा रही है। ऐसे में हमें यह सोचने को विवश होना पड़ता है कि क्या वाकई पत्रकारिता 186 साल बाद उस ऊंचाई पर पहुंची है जहां उसे होना चाहिए था। जहां उसके पहुंचाने का स्वप्न इसके पुरोधाओं ने देखा था। क्या वाकई वह सार्थक और सक्षम तौर पर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की भूमिका निभाने में सफल रही है। जहां तक पत्रकारिता की प्रगति का प्रश्न है इसने तकनीकी ढंग से बेहद प्रगति की है लेकिन उसके नैतिक मूल्यों का पतन हुआ है। आज जो चाहे इसे अपने ढंग से इस्तेमाल कर सकता है। कभी पत्रकारिता मिशन थी आज मोनोपोली है। जिसकी जैसी इच्छा अपने हित में इसका इस्तेमाल कर रहा है। ऐसे में इसका सत्यम् शिवम् सुंदरम् का सिद्धांत छीजता जा रहा है। कभी देश के स्वाधीनता आंदोलन की प्रेरक और प्राण शक्ति रही पत्रकारिता उद्देश्यहीन हो बाजार में आ खड़ी ई है। जो चाहता है इसकी मुंहमांगी कीमत चुकाता है और यह उसके ही बोल बोलने लगती है। अपने सामाजिक सरोकारों को तिलांजलि दे यह ऐसे हाथों में खेलने लगी है,जो इसे स्वेच्छाचारी और स्वार्थी बना रहे हैं। यह पतन की उस राह पर चल पड़ी है, जहां से अगर इसे अभी नहीं उबारा गया तो बहुत देर हो जायेगी। वैसे आज भी कुछ सार्थक पत्रकारिता के सारथी हैं जिन्हें अपने ध्येय, अपनी निष्ठा और सिद्धांतों से प्रेम है, वे बिके नहीं और यही हमारे लिए आशा की किरण के समान हैं। इन्हें प्रणाम और इसके कार्य को साधुवाद।’


कार्यक्रम के सूत्रधार और छपते-छपते के संपादक विश्वंभर नेवर ने अपने स्वागत भाषण में पत्रकारों की अंतर्वेदना और संघर्ष का जिक्र किया। संचालन सुश्री राजप्रभा दासानी ने किया।



जस्टिस कल्याण ज्योति सेनगुप्ता उत्तरीय प्रदान कर
 डॉ. रुक्म त्रिपाठी का सम्मान कर उनसे हाथ मिलाते हुए।
 साथ हैं डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र और विश्वंभर नेवर