Sunday, May 19, 2013

अति प्रचंड रवि ताप


-डॉ. रुक्म त्रिपाठी
मृग मरीचिका जल सदृश,
लहर-लहर लहराय।
हरिण भागता ही रहे,
किंतु बूंद नहिं पाय।।
पशु, पक्षी व्याकुल फिरें,
नही जलाशय पास।
चहुंदिशि सूखा ही दिखे,
कैसे बुझेगी प्यास।।
सिंह और मृग खोजते,
मिल कर शीतल छांव।
ऐसे संकट के समय,
उनमें नहीं दुराव।।
सूखी जीभ निकाल कर,
लक-लक करता श्वान।
नेत्र बंद कर हांफता,
संकट में है प्रान।।
सुमुखि सुलोचनि कामिनी,
भूल साज शृंगार।
रह-रह करवट बदलती,
व्याकुल बारंबार।।
नहीं सुनायी दे रही,
अब कोयल की कूक,
लगता वह अब चल बसी,
लग जाने से लूक।।
धूल बवंडर बन उठे,
सूखे कूप तड़ाग।
जल विहीन सरिता दिखे,
बिन सिंदूरी मांग।।
पथ-खोरें सुनसान सब.
सन्नाटा है व्याप।
शन : शन : है बढ़ रहा,
अति प्रचंड रवि ताप।।
हवा चले अरहर लगे,
ले हर-हर का नाम।
खड़ी अकेली मोड़ पर,
भजती शिव अविराम।।

Thursday, May 16, 2013

पहचान !



जब जब निर्वाचन होते हैं, प्रत्याशी निरीह बन जाते।
याचक बन कर वोट मांगते, फिर दर्शन दुर्लभ हो जाते॥
पांच साल में एक बार वे, हाथ जोड़ कर बनें भिखारी।
तब ऐसा वे ढोंग रचाते, जब मति मारी जाय हमारी॥
सबसे बड़ी भूल यह होती, हम उनको पहचान न पाते।
उनका हाव भाव लख कर के, महा मूर्ख  उल्लू बन जाते॥
जीत गए तो दर्शन दुर्लभ, सेवक तब स्वामी बन  जाते।
हम भी उनके मतदाता हैं, मिलें अगर पहचान न पाते॥
-डॉ. रुक्म त्रिपाठी